एकांतिक वार्तालाप और दर्शन : श्री हित प्रेमानंद जी महाराज 22 मार्च 2025

एकांतिक वार्तालाप : श्री प्रेमानंद जी महाराज 22 मार्च 2025

श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के साथ भक्तों की एक गहन आध्यात्मिक चर्चा प्रस्तुत की गई है। इस संवाद में उषा गौतम जी, आदित्य कुलकर्णी जी, उमेश प्रताप सिंह जी जैसे भक्तों ने जीवन, धर्म, भक्ति और आत्म-साक्षात्कार से संबंधित गंभीर प्रश्न पूछे, जिनका महाराज जी ने सरल और प्रभावशाली ढंग से उत्तर दिया। यह वार्ता न केवल धार्मिक सिद्धांतों को स्पष्ट करती है, बल्कि यह भी दर्शाती है कि आधुनिक जीवन की चुनौतियों के बीच भी भक्ति और कर्तव्य का संतुलन कैसे बनाया जा सकता है।
इस ब्लॉग में हम वीडियो के प्रमुख बिंदुओं को संक्षेप में प्रस्तुत करेंगे, एक FAQ अनुभाग जोड़ेंगे और मुख्य बिंदुओं को हाइलाइट करेंगे। यह लेख पाठकों को इस संवाद की गहराई को समझने में मदद करेगा।

संवाद का सारांश

एकांतिक वार्तालाप : श्री प्रेमानंद जी महाराज 22 मार्च 2025

वीडियो में विभिन्न भक्तों ने अपने जीवन से जुड़े प्रश्न पूछे, जिनका जवाब महाराज जी ने भक्ति, धर्म और आत्म-जागरूकता के आधार पर दिया। यहाँ संवाद के प्रमुख पहलुओं को पैराग्राफ में प्रस्तुत किया गया है:

Table of Contents

निर्णय लेने और मानसिक अशांति से निपटना

संवाद की शुरुआत एक भक्त के इस प्रश्न से होती है कि यदि कोई निर्णय गलत हो जाए तो मन अशांत हो जाता है, इसका समाधान क्या है? महाराज जी ने समझाया कि जीवन में निर्णय लेते समय हमें धर्म के मार्ग पर ध्यान देना चाहिए। गलत निर्णय से उत्पन्न अशांति को दूर करने के लिए भगवान के नाम का जप और आत्म-चिंतन आवश्यक है। यहाँ यह संदेश स्पष्ट है कि मानसिक शांति भक्ति और सही मार्गदर्शन से ही प्राप्त होती है।

अहंकार और आत्म-साक्षात्कार का अंतर

आदित्य कुलकर्णी जी ने अहंकार और “अहम् ब्रह्मास्मि” के अहं में अंतर पूछा। महाराज जी ने बताया कि जीवात्मा का अहंकार माया और अज्ञान से उत्पन्न होता है, जो हमें बंधन में रखता है। वहीं, “अहम् ब्रह्मास्मि” का अहं शुद्ध ब्रह्म का प्रतीक है, जिसमें कोई माया या बंधन नहीं होता। यह अंतर समझना आत्म-साक्षात्कार की दिशा में पहला कदम है।

अपने इष्ट देव की पहचान

उमेश प्रताप सिंह जी ने पूछा कि अपने इष्ट देव को कैसे पहचाना जाए। इसके जवाब में महाराज जी ने गुरु की महत्ता पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि गुरु ही वह मार्गदर्शक हैं जो हमें हमारे इष्ट का नाम और रूप प्रदान करते हैं। गुरु द्वारा दी गई उपासना को अपनाने से ही साधक अपने लक्ष्य तक पहुँच सकता है। यहाँ गुरु और शिष्य के संबंध की गहराई को रेखांकित किया गया।

निराकार से नाम जप की यात्रा

एक भक्त ने बताया कि वह पहले निराकार उपासना करता था, लेकिन अब नाम जप की ओर बढ़ा है। महाराज जी ने इसे स्वाभाविक प्रगति बताया और कहा कि नाम जप से मन की शुद्धि होती है, जो निराकार स्वरूप को समझने में सहायक है। यहाँ भक्ति के विभिन्न रूपों के बीच सामंजस्य को समझाया गया।

वृंदावन से बाहर भक्ति की निरंतरता

कैप्टन संजीव कुमार सरसत जी ने दुबई में रहते हुए भक्ति कैसे करें, यह प्रश्न उठाया। महाराज जी ने कहा कि भक्ति हृदय का विषय है और स्थान की सीमाओं से परे है। भजन, सत्संग और प्रेम के साथ भगवान का स्मरण हर जगह भक्ति को जीवंत रख सकता है। यह सलाह आज के वैश्विक जीवन में रहने वाले भक्तों के लिए प्रासंगिक है।

ईश्वर की कृपा का आसान मार्ग

प्रियंका गर्ग जी ने ईश्वर की कृपा प्राप्त करने का सबसे सरल तरीका पूछा। महाराज जी ने नाम जप को सबसे प्रभावी और आसान उपाय बताया। उन्होंने कहा कि मन, वचन और कर्म से छल-कपट छोड़कर नाम जप करने से भगवान की कृपा शीघ्र प्राप्त होती है। यह सलाह भक्ति की सादगी को दर्शाती है।

कर्तव्यनिष्ठ सैनिक बनना

एक भक्त ने कर्तव्यनिष्ठ सैनिक बनने का उपाय पूछा। महाराज जी ने सैनिक और संत के कर्तव्य की समानता बताई। दोनों ही अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित होते हैं। परहित और भक्ति की भावना से व्यक्ति में दिव्य गुणों का विकास होता है। यहाँ कर्तव्य और आध्यात्मिकता का संतुलन स्पष्ट किया गया।

नकारात्मक विचारों से मुक्ति

नकारात्मक विचारों से पाप की ओर बढ़ने की समस्या पर महाराज जी ने कहा कि शुद्ध भोजन और नाम जप से मन की शुद्धि होती है। नकारात्मकता को कम करने के लिए राधा नाम का जप विशेष रूप से प्रभावी है। यहाँ भक्ति को मानसिक स्वास्थ्य का आधार बताया गया।

चिंतन और क्रिया का संबंध

शास्त्रों में चिंतन और क्रिया के संबंध पर महाराज जी ने कहा कि चिंतन क्रिया का मूल है। यदि हम विषयों का चिंतन करते हैं, तो वह क्रिया में बदल जाता है। इसलिए भगवान का चिंतन करना चाहिए, जिससे सकारात्मक कर्म उत्पन्न हों। यह सलाह विचारों की शक्ति को रेखांकित करती है।

जीवन और आध्यात्मिकता का संतुलन

एक भक्त ने पूछा कि आध्यात्मिकता और कर्म दोनों को कैसे संभाला जाए। महाराज जी ने कहा कि गृहस्थ जीवन में भी भक्ति संभव है। कर्तव्यों का पालन करते हुए भक्ति में लीन रहना ही संतुलन का मार्ग है। यह आज के व्यस्त जीवन के लिए उपयोगी सुझाव है।

अवसाद और भक्ति

एक भक्त ने कहा कि नाम जप से मन उदासीन रहता है और लोग इसे अवसाद कहते हैं। महाराज जी ने स्पष्ट किया कि भक्ति से उदासीनता आध्यात्मिक प्रगति का संकेत है, न कि अवसाद। यह भक्ति के सही अर्थ को समझने में मदद करता है।

YouTubers और कलाकारों के लिए सलाह

YouTubers, गायकों और खिलाड़ियों के लिए महाराज जी ने कहा कि अपने कार्य को भगवान को समर्पित करें। समय का सदुपयोग भक्ति और सेवा में करना चाहिए। यह सलाह आधुनिक पेशेवरों के लिए प्रेरणादायक है।

मृत्यु के बाद कर्मों की स्मृति

मोहित चावला जी ने पूछा कि क्या मृत्यु के बाद कर्म याद रहते हैं। महाराज जी ने कहा कि स्वर्ग या नर्क में जीवात्मा को यह एहसास होता है कि उसने भजन नहीं किया। मृत्यु लोक ही भक्ति का सच्चा स्थान है। यह जीवन की क्षणभंगुरता को दर्शाता है।

श्री हित प्रेमानंद गोविंद शरण जी महाराज के आध्यात्मिक प्रश्नोत्तर : 21 मार्च 2025

एकांतिक वार्तालाप : श्री प्रेमानंद जी महाराज 22 मार्च 2025

FAQ

Q: धर्म के पालन में अनुकूलता और प्रतिकूलता की परवाह क्यों नहीं करनी चाहिए?
महाराज जी : धर्म में चलने वाले को अनुकूलता और प्रतिकूलता की परवाह नहीं करनी चाहिए। जो धर्म का अनुसरण करता है, वह केवल धर्म को देखता है, परिणामों की चिंता नहीं करता। जो अनुकूलता की आशा करता है, वह धर्म में स्थिर नहीं रह सकता।

देखो, धर्म के मार्ग पर चलने के कारण स्वयं महाराज युधिष्ठिर को 12 वर्षों का वनवास और 1 वर्ष का अज्ञातवास सहना पड़ा। वहीं, जो अधर्म में थे, जैसे दुर्योधन और उसके अनुयायी, वे उस समय बड़े ऐश्वर्य में थे। लेकिन अंततः क्या हुआ? सत्य और धर्म की विजय हुई। युधिष्ठिर की जय हुई, और दुर्योधन पराजित हुआ।

इसलिए, जो सच्चा धार्मिक पुरुष होता है, वह सुख-दुःख की परवाह नहीं करता। यदि तुम सुख की परवाह करोगे, तो धर्म का पालन नहीं कर पाओगे। और यदि तुम धर्म का पालन करोगे, तो सुख-दुःख की परवाह त्यागनी पड़ेगी।

हमने धर्म के अनुसार कार्य किया, अब चाहे संसार निंदा करे, चाहे विरोध करे, चाहे कोई प्रतिकूलता आए—यदि हम सबके विचारों में उलझ गए, तो धर्म से विचलित हो जाएंगे। यदि धर्म को देखना है, तो अन्य किसी की चिंता मत करो।

मुझे धर्म से चलना है, सबका मंगल होगा, सबका कल्याण होगा। यदि कोई इसे नहीं समझ पा रहा, या हमारे प्रतिकूल चल रहा है, तो वह उसका स्वभाव है। लेकिन हम अपने धर्म से डिगने वाले नहीं। धर्म कभी अनुकूलता की मांग नहीं करता, धर्म तो केवल यह कहता है कि जीवनभर धर्म से चलो, चाहे जितना भी दुःख सहना पड़े, उसकी कोई परवाह मत करो।

Q: अहंकार और “अहम् ब्रह्मास्मि” में क्या अंतर है?
महाराज जी : ब्रह्म तो सभी में है, परंतु जीव अज्ञानवश स्वयं को धनवान, कुलवान, शरीरधारी समझ बैठता है। यही उसकी मूढ़ता है। जब शरीर नष्ट हो जाता है, तो क्या धन, कुल, रूप साथ जाता है? कुछ भी नहीं जाता। फिर जीव अपने कर्मों के अनुसार नया जन्म प्राप्त करता है और उसी अहंकार में पुनः फंस जाता है। इसी प्रकार, अनंत जन्मों से यह चक्र चलता आ रहा है।

अब हमें यह मानव जन्म मिला है, तो हमें अपना कल्याण करना चाहिए। “मैं” के आगे जो भी माया से जुड़ा हुआ है, उसे त्याग देना चाहिए। लेकिन जब “मैं” के साथ भगवान का संबंध जुड़ जाता है—”मैं भगवान का भक्त हूँ,” “मैं भगवान का दास हूँ,” “मैं भगवान का सखा हूँ”—तो वह परम पवित्र बन जाता है।

जो अहंकार माया से जुड़ा है, वह अपवित्र और बंधनकारी है। लेकिन जो अहंकार भगवान से जुड़ा है, वह मुक्तिदायक और पवित्र है। इसलिए, हमें इस माया से उत्पन्न “मैं” को त्यागकर भगवान से जुड़ना चाहिए। यही सच्चा आत्मबोध और मुक्ति का मार्ग है।

Q: अपने इष्ट देव को कैसे पहचानें?
A: गुरु की पहचान पहले करें। महाराज जी के अनुसार, गुरु ही इष्ट का नाम और रूप बताते हैं, जिससे उपासना सिद्ध होती है।

Q: निराकार उपासना और नाम जप का क्या संबंध है?
महाराज जी : राधे-राधे! देखो भैया, तुम उलझे हुए नहीं हो, बल्कि आकार में फंसे हुए हो। वास्तव में, तुम स्वयं ही निराकार हो। हमारा, तुम्हारा स्वरूप कोई मशीन नहीं पकड़ सकती। न तो कोई एक्स-रे, न अल्ट्रासाउंड, और न ही कोई वैज्ञानिक उपकरण हमारे वास्तविक स्वरूप को देख सकता है। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार—इनमें से कुछ भी मशीनों से नहीं देखा जा सकता, क्योंकि अध्यात्म को कोई मशीन नहीं पकड़ सकती। अध्यात्म एक दिव्य अनुभूति है, जिसे केवल आत्मचिंतन और साधना से जाना जा सकता है।

हमारा स्वरूप मूलतः निराकार है, लेकिन जैसे बिजली के पास कोई निश्चित आकार नहीं होता, फिर भी वह विभिन्न उपकरणों में अलग-अलग रूप धारण कर लेती है—पंखे में हवा देती है, हीटर में गर्मी देती है, बल्ब में रोशनी देती है—उसी प्रकार, ब्रह्म शक्ति भी जिस यंत्र (शरीर) में प्रविष्ट होती है, उसी के अनुरूप अनुभव होता है। जीव का भी कोई निश्चित रूप नहीं है, परंतु शरीर धारण करके वह स्वयं को मनुष्य, पशु, पक्षी, या अन्य किसी रूप में देखने लगता है।

तुम्हारी असली समस्या यही है कि तुम अपने शरीर (आकार) में फंस गए हो। जैसे कांटा अगर चुभ जाए तो उसे निकालने के लिए कांटे जैसा ही औजार चाहिए, वैसे ही आकार से मुक्त होने के लिए किसी आकार का ही सहारा लेना होगा। इसलिए, भगवान के नाम का जप और भगवान के रूप की आराधना सबसे उत्तम साधन है। जब नाम जप में तन्मय हो जाओगे, तब यह माया का आकार पीछे छूट जाएगा, और तुम्हारा वास्तविक स्वरूप प्रकाशित हो जाएगा।

अब नाम जप कौन सा करें? यदि तुम पूछोगे, तो मैं तो राधा नाम का आशिक हूँ। लेकिन यदि कोई शिव भक्त है, तो “सदा शिव” का जप कर सकता है। कोई अन्य भगवान में श्रद्धा रखता है, तो उनके नाम का जप करे। महत्वपूर्ण यह है कि सतत नाम स्मरण करो, भगवत गीता और शास्त्रों का स्वाध्याय करो, ताकि बुद्धि पवित्र हो और ज्ञान प्राप्त हो।

भगवान को प्राप्त करने के लिए कुछ नियमों का पालन करना भी आवश्यक है:

  • अपवित्र आचरण, अपवित्र भोजन, अपवित्र वार्ता, और अपवित्र विचारों से बचो।

  • कम बोलो, कम खाओ, और कम सोओ।

    • भोजन: एक दिन में 1 किलो भोजन पर्याप्त है, लेकिन यह मत करो कि पूरे दिन थोड़ा-थोड़ा खाते रहो। दो रोटियों से भी पेट भर सकता है, अधिक खाने से इंद्रियों का बंधन बढ़ता है।

    • नींद: 4-5 घंटे की नींद पर्याप्त है। अनावश्यक सोकर समय बर्बाद मत करो।

    • बोलना: जब भी बोलो, तो संयमित और उचित बोलो। मौन रखना साधना के लिए बहुत लाभकारी है।

जब तुम इन नियमों का पालन करोगे, तब तुम्हारी साधना स्वतः ही गहरी होने लगेगी। शुद्ध आचरण, पवित्र विचार और भगवत नाम जप—इनसे ही भगवान की प्राप्ति संभव है। इसलिए, खूब नाम जप करो और इस चक्कर में मत पड़ो कि साकार अच्छा है या निराकार। बस साधना में आगे बढ़ते जाओ।

Q: महाराज जी, मैं वृंदावन से बहुत दूर, दुबई में रहता हूँ। वहाँ भक्ति कैसे करूँ? क्या हमें भक्ति के लिए वृंदावन जैसे पवित्र स्थान पर रहना आवश्यक है?
महाराज जी : राधे-राधे! देखो भैया, भक्ति स्थान की मोहताज नहीं होती। भक्ति हृदय का भाव है, यह मन की स्थिति पर निर्भर करती है, न कि भौगोलिक स्थान पर। अगर भक्ति करना चाहो, तो लंका में भी विभीषण जी ने भक्ति कर ली। लंका तो घोर निशाचरों का स्थान था, फिर भी वहाँ विभीषण जी ने भगवान श्रीराम की भक्ति की। तो दुबई तो लंका जैसा भी नहीं है! वहाँ तो बहुत से भारतीय और भगवान के भक्त भी रहते हैं।

भक्ति के लिए केवल एक चीज़ चाहिए—भगवान की स्मृति और प्रेम। अगर हृदय में प्रेम जागृत हो जाए, तो दुबई में भी मुरली मनोहर प्रकट हो सकते हैं। और अगर प्रेम न हो, तो वृंदावन जाकर भी भगवान का अनुभव नहीं होगा। प्रेम ते प्रकट होए मैं जाना—भगवान तभी प्रकट होते हैं, जब प्रेम जागता है। और यह प्रेम भजन से आता है, भजन साधु-संग से आता है।

इसलिए, तुम जहाँ भी हो, खूब नाम जप करो, राधा-कृष्ण का स्मरण करो, और उनके भाव में रम जाओ। घर को ही वृंदावन बना लो। ठाकुर जी को घर में विराजमान करो, माता जी सेवा करें, बच्चे भक्ति से जुड़े रहें—यही असली वृंदावन है।

भगवान सर्वत्र हैं—हरि व्यापक सर्वत्र समाना। वृंदावन और दुबई में कोई भेद नहीं है, भगवान दोनों जगह हैं। बस, तुम्हारे हृदय में प्रेम होना चाहिए। प्रेम जागा, तो भगवान हर जगह दिखाई देंगे। प्रेम नहीं है, तो वृंदावन जाकर भी सुख नहीं मिलेगा।

अब भोजन की बात करें—गंदे भोजन से बचना चाहिए। मांसाहार तो छोड़ ही दो, लेकिन जहाँ मांस पका हो, वहाँ बना शुद्ध भोजन भी मत खाओ। पवित्र भोजन लो, भगवान का प्रसाद लो। तुम नेवी में हो, कहीं भी जाओ, लेकिन माता जी जो घर का प्रसाद देती हैं, वही ग्रहण करो।

तो नियम बना लो—एक क्षण भी भगवान का नाम नहीं भूलना है। चाहे वृंदावन में रहो या दुबई में, अगर भजन और भगवत स्मरण में लगे रहोगे, तो वहीं भगवत प्राप्ति हो जाएगी।

Q: महाराज जी, ईश्वर की कृपा प्राप्त करने का सबसे आसान और प्रभावी तरीका क्या है? क्या गृहस्थ जीवन में भी भक्ति संभव है?
महाराज जी : राधे-राधे! देखो भैया, भगवान की कृपा प्राप्त करने का सबसे सरल और प्रभावी उपाय नाम जप है।

भगवान की कृपा पाने के लिए न धन की आवश्यकता है, न किसी विशेष विधि की। बस मन, वचन और कर्म से छल-कपट छोड़कर ईमानदारी से भगवान का नाम जपना चाहिए।

“मन क्रम वचन छाण चतुराई, तो भजत कृपा कर हैं रघुराई।”
अर्थात, यदि कोई बिना चतुराई, छल-कपट के भगवान का भजन करता है, तो भगवान की कृपा जल्दी ही प्राप्त हो जाती है।

नाम जप करने के लिए कोई पैसा नहीं लगता, कोई विशेष स्थान या तैयारी की आवश्यकता नहीं होती। आप कहीं भी, किसी भी परिस्थिति में, किसी भी समय भगवान का नाम ले सकते हैं। बस हृदय से “राधा-राधा” का जप करते रहो। इसमें कोई कठिनाई नहीं, कोई बाधा नहीं। यह सबसे सहज और प्रभावी उपाय है।

गृहस्थ जीवन में भक्ति संभव है?

हाँ, बिल्कुल! गृहस्थ और विरक्त होना केवल हमारे जीवन के तरीके हैं, परंतु सभी जीव भगवान के ही अंश हैं। गृहस्थ जीवन कोई बाधा नहीं है, बल्कि यदि गृहस्थ रहते हुए भी सच्चे भाव से भगवान का भजन किया जाए, तो वह गृहस्थ भी संत ही है।

“गृहस्थ बाधक नहीं, जब भोगाशक्ति प्रबल न हो।”
गृहस्थ जीवन तभी बाधक बनता है जब हमारी बुद्धि भोगों में अत्यधिक आसक्त हो जाती है। लेकिन यदि गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी अच्छे आचरण के साथ नाम जप और भक्ति में लगे रहें, तो यही जीवन मंगलमय हो जाता है।

क्या गोपियाँ गृहस्थ नहीं थीं?
लेकिन उनके जैसा सन्यासी कौन हुआ? वे घर के कार्यों में लगी रहती थीं—गाय दुहना, दही मथना, घर लीपना—लेकिन उनका मन हर समय श्रीकृष्ण में तल्लीन रहता था। यही सच्ची भक्ति है। संसार के कार्य करते हुए भी मन भगवान में लगा रहे, तो यही सबसे उत्तम साधना है।

इसलिए, चाहे गृहस्थ हो या विरक्त, नाम जप और भगवान का स्मरण हर स्थिति में किया जा सकता है। यही भक्ति का सबसे सरल और प्रभावी मार्ग है।

Q: महाराज जी, एक उत्कृष्ट और कर्तव्यनिष्ठ सैन्य अधिकारी बनने के लिए हमें कौन से गुण विकसित करने चाहिए?
महाराज जी : राधे-राधे! देखो भैया, एक सैनिक और एक संत में कोई अंतर नहीं होता। दोनों ही अपने कर्तव्य पथ पर अडिग रहकर राष्ट्र और मानवता की सेवा करते हैं। सैनिक बाहरी शत्रुओं से रक्षा करता है, और संत आंतरिक विकारों से रक्षा करता है।

सैनिक में दिव्यता कैसे आए?

जब तक अध्यात्म जागृत नहीं होता, तब तक स्वार्थ बुद्धि बनी रहती है। और स्वार्थ बुद्धि कभी दिव्यता को प्रकट नहीं होने देती।
जो भी महान बने हैं, वे अध्यात्म से जुड़े बिना महान नहीं बने।

परहित भावना से ही दिव्यता आती है। जब हम अपने हित से ऊपर उठकर दूसरों के लिए सोचते हैं, तभी हमारा हृदय पवित्र होता है। यह भावना केवल भगवान के नाम जप, सत्संग, और शुद्ध आचरण से आती है। इसलिए—

  1. नियमित रूप से भगवान का नाम जपो।

  2. प्रतिदिन सत्संग सुनो, चाहे मोबाइल से ही सही।

  3. पवित्र आहार और पवित्र आचरण को अपनाओ।

सैनिक के लिए संयम और धर्म का पालन क्यों आवश्यक है?

नाम जप और सत्संग से अध्यात्म जागृत होता है। लेकिन इसका पालन करने के लिए संयम जरूरी है। जैसे—

मांसाहार का त्याग।
मदिरा का त्याग।
दूसरों के अहित से बचना।

यदि कोई सैनिक धर्मपूर्वक जीवन जीता है, तो उसमें असाधारण शक्ति आती है। राष्ट्र के प्रति समर्पण तभी सार्थक होगा, जब हमारा मन शुद्ध होगा। यदि मन भ्रष्ट होगा, तो राष्ट्र के प्रति ईमानदारी भी डगमगा सकती है।

क्या कठिन परिस्थितियों में भी संयम रखना संभव है?

हाँ, बिल्कुल! देखो, हिमालय में रहने वाले साधु कई-कई दिनों तक भूखे रहकर, ठंड में बैठकर साधना करते हैं। क्या वे मांसाहार या शराब पीते हैं? नहीं! वे सहन कर लेते हैं, क्योंकि भगवान सहनशक्ति प्रदान करते हैं।

राष्ट्र सेवा और धर्म सेवा एक ही बात है। अगर कोई सैनिक पूरी निष्ठा से धर्म के नियमों का पालन करेगा, तो भगवान उसकी रक्षा करेंगे। बहुत से ऐसे वीर सैनिक हैं, जिन्होंने पूरा जीवन सेना में बिता दिया, लेकिन एक बूंद शराब तक नहीं पी। तो क्या वे कठिन पोस्टिंग पर नहीं गए? जरूर गए, परंतु उनकी निष्ठा अडिग रही।

धर्म से शक्ति आती है!

जो सच्चे राष्ट्रभक्त होते हैं, वे कभी राष्ट्र से गद्दारी नहीं कर सकते। वे लालच में नहीं फंसते। जब कोई सैनिक धर्म और सत्य की राह पर चलता है, तो उसमें अद्भुत बल आ जाता है।

हमारे देश के वीरों ने “जय हिंद” बोलकर फांसी के फंदे को चूमा था। क्या उनके पास भोग-विलास की कमी थी? नहीं! लेकिन वे अपने धर्म और राष्ट्र के प्रति समर्पित थे।

अंतिम संदेश:

सैनिक को चाहिए कि वह—
👉 नाम जप और सत्संग को जीवन का हिस्सा बनाए।
👉 शुद्ध आहार और शुद्ध आचरण रखे।
👉 किसी भी परिस्थिति में धर्म के नियमों से विचलित न हो।
👉 राष्ट्र के प्रति समर्पण को सबसे बड़ी भक्ति माने।

जो यह सब करेगा, वही सच्चा सैनिक और सच्चा संत होगा!

राधे-राधे! जय हिंद!

Q: महाराज जी, नकारात्मक विचार मुझसे पाप करवा देते हैं। मैं इन विचारों को कैसे दूर करूं?
महाराज जी : राधे-राधे! देखो बेटा, मन में दो तरह की बुद्धियां होती हैं—कुमति और सुमति। जब कुमति हावी हो जाती है, तो नकारात्मक विचार बढ़ते हैं और पाप की ओर ले जाते हैं। लेकिन यदि सुमति को प्रबल कर लिया जाए, तो जीवन सकारात्मक और दिव्य बन जाता है।

नकारात्मक विचारों को दूर करने के लिए क्या करें?

  1. भोजन को शुद्ध करो
    👉 “जैसा अन्न, वैसा मन”—यदि तुम तामसिक और अशुद्ध भोजन खाओगे, तो बुद्धि मलिन होगी।
    👉 बाजार के भोजन से बचो, घर का शुद्ध और सात्विक भोजन करो।

  2. नशा तुरंत छोड़ो
    👉 कोई भी नशा बुद्धि को भ्रष्ट करता है, शरीर को कमजोर करता है और आत्मा को दूषित करता है।
    👉 यदि जीवन सुधारना चाहते हो, तो आज और अभी से नशा छोड़ दो।
    👉 लाखों लोग बिना नशे के जीते हैं, और वे सुखी भी हैं।

  3. नाम जप और सत्संग से जुड़े रहो
    👉 राधा नाम का ध्यान करने से जन्म-जन्म के तनाव मिट जाते हैं।
    👉 अगर सच में तनाव मुक्त होना है, तो शराब नहीं, बल्कि भगवान का नाम लो।

  4. नेगेटिव सोच को कंट्रोल करने के लिए शास्त्र स्वाध्याय करो
    👉 शास्त्रों का अध्ययन, अच्छे विचार, और सत्संग तुम्हारी सोच को सकारात्मक बनाएंगे।
    👉 अगर मन को सही दिशा नहीं दी, तो यह डिप्रेशन में डाल सकता है।
    👉 नेगेटिव सोच को बढ़ने दिया, तो यह आत्महत्या जैसे गलत विचार भी ला सकती है।

समाधान क्या है?

आज से ही नशा त्याग दो।
सात्विक भोजन ग्रहण करो।
रोज नाम जप और सत्संग सुनो।
बुरी संगति से दूर रहो और अच्छे विचारों को अपनाओ।
भगवान का स्मरण करके जीवन को दिव्य और सुखमय बनाओ।

भगवान ने तुम्हें सुधरने का एक और अवसर दिया है, इसे व्यर्थ मत जाने दो!
राधे-राधे!

Q: चिंतन और क्रिया का संबंध क्या है?
A: चिंतन क्रिया को जन्म देता है। भगवान का चिंतन सकारात्मक कर्म लाता है।

Q: समय का सदुपयोग कैसे करें?
A: समय को भजन और सेवा में लगाएं। यह जीवन को सार्थक बनाता है।

मुख्य बिंदु

  • धर्म का पालन: सुख-दुख की परवाह किए बिना धर्म पर चलने से विजय प्राप्त होती है।
  • अहंकार और आत्मा: अहंकार माया से बंधन लाता है, जबकि शुद्ध ब्रह्म मुक्ति देता है।
  • गुरु की भूमिका: गुरु के मार्गदर्शन से ही इष्ट की पहचान और भक्ति संभव है।
  • नाम जप का महत्व: नाम जप से मन शुद्ध होता है और कृपा प्राप्त होती है।
  • जीवन में संतुलन: कर्तव्य और भक्ति का संयोजन जीवन को सार्थक बनाता है।
  • नकारात्मकता से मुक्ति: शुद्ध भोजन और भक्ति नकारात्मक विचारों को दूर करते हैं।
  • सकारात्मकता और सेवा: सकारात्मक सोच और परहित से जीवन आनंदमय बनता है।